MAA Movie Review - मां मूवी रिव्यू | Bollywood Box Office Collection
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Movie Review |
जब बात संतान पर आंच आने की हो, तो एक मां सिर्फ इंसान नहीं रह जाती — वह शक्ति, ममता और तांडव का स्वरूप बन जाती है। बॉलीवुड में इस भावना को कई बार पर्दे पर उतारा गया है — श्रीदेवी की 'मॉम' हो या रवीना टंडन की 'मातृ', दोनों ही फिल्मों में मातृत्व के भीतर छुपे प्रतिशोध को देखा गया है। अब इसी कड़ी में काजोल की फिल्म 'मां' जुड़ती है, लेकिन इस बार लहजा बदला हुआ है। यह कोई कोर्टरूम ड्रामा या सोशल थ्रिलर नहीं, बल्कि एक हॉरर ड्रामा है — जहां एक मां अपनी बेटी को राक्षसी ताकतों से बचाने के लिए खुद काली का रूप लेती है।
कहानी का सार:
कहानी शुरू होती है पश्चिम बंगाल के एक काल्पनिक गांव चंदरपुर से। काली पूजा की रात एक औरत प्रसव पीड़ा से गुजर रही है, लेकिन यहां प्रसव कोई सौभाग्य नहीं — बल्कि खौफ की शुरुआत है। सदियों से इस गांव में जन्मी बेटियों की बलि दोइत्तो (एक पौराणिक राक्षस) को दी जाती है। इस रात भी एक बच्ची का बलिदान होता है, जबकि उसका जुड़वा भाई शुभांकर (इंद्रनील सेनगुप्ता) बच जाता है।
सालों बाद शुभांकर अपनी पत्नी अंबिका (काजोल) और 12 साल की बेटी श्वेता (केरिन शर्मा) के साथ कोलकाता में सामान्य जीवन जी रहा है। लेकिन पिता की मृत्यु पर अकेले गांव लौटते शुभांकर की मौत रहस्यमय हो जाती है, और अंबिका व श्वेता को मजबूरन उसी गांव लौटना पड़ता है — जहां अब भी वही खौफनाक प्रथाएं जीवित हैं। गांव में किशोरियों के पहले मासिक धर्म के बाद उनके गायब होने की घटनाएं आम हैं, और लोग मानते हैं कि दोइत्तो उन्हें उठा लेता है।
अब जब श्वेता भी उस उम्र में पहुंचती है, तो अंबिका को अपनी बेटी को उस राक्षसी साए से बचाने के लिए एक असंभव युद्ध लड़ना पड़ता है — एक मां बनाम दोइत्तो।
स्क्रिप्ट और निर्देशन:
लेखक सायवन क्वाद्रस ने मां काली और रक्तबीज की पौराणिक कथा को आधुनिक सामाजिक समस्याओं — जैसे लिंगभेद, अंधविश्वास और कुप्रथाओं — से जोड़ने का साहसिक प्रयास किया है। पर कहानी का यह ढांचा जितना दमदार है, उतना ही पटकथा में उसका असर फीका रह जाता है। स्क्रीनप्ले में ट्विस्ट्स की कमी और हॉरर एलिमेंट्स की सीमित गहराई दर्शक को बांधकर नहीं रख पाती।
निर्देशक विशाल फुरिया, जो पहले ‘छोरी’ और ‘छोरी 2’ जैसी फिल्मों से डर का माहौल बना चुके हैं, इस बार अपनी ही लकीर को दोहराते नजर आते हैं। फिल्म के जंगल और अंधेरे वाले दृश्य पहले जैसी फिल्मों की याद दिलाते हैं, लेकिन वैसा असर नहीं छोड़ते। क्लाइमैक्स भी अपेक्षित और भावनात्मक गहराई से रहित है।
अभिनय का आकलन:
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काजोल पूरी फिल्म की आत्मा हैं। अंबिका के रूप में वह जितनी सशक्त लगती हैं, उतनी ही भावुक भी। वह एक मां की बेबसी, गुस्सा और साहस तीनों को सजीव करती हैं।
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रोनित रॉय ने जयदेव के बहुरूपिया किरदार में जबरदस्त अभिनय किया है। उनका लुक, डायलॉग डिलिवरी और बॉडी लैंग्वेज सिहरन पैदा करती है।
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केरिन शर्मा (श्वेता) का अभिनय कमजोर कड़ी साबित होता है। उनके चेहरे पर डर और भावनाएं पर्याप्त रूप से नहीं झलकतीं।
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विभा रानी और दिब्येंदु भट्टाचार्य छोटी भूमिकाओं में अपनी छाप छोड़ते हैं।
तकनीकी पक्ष:
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सिनेमैटोग्राफी (पुष्कर सिंह) और प्रोडक्शन डिजाइन (शीतल दुग्गल) ने फिल्म को visually प्रभावशाली बनाने की भरपूर कोशिश की है। अंधेरे में डर को महसूस कराया गया है, लेकिन बैकग्राउंड स्कोर उस डर को उभारने में असफल रहता है।
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गाने औसत हैं, फिल्म का कोई म्यूजिक एलिमेंट याद नहीं रहता।
निष्कर्ष:
‘मां’ एक संवेदनशील विचार पर आधारित फिल्म है — जहां एक मां को अपनी बेटी के लिए राक्षसी ताकतों से लड़ना पड़ता है। यह एक सामाजिक संदेश देने वाली हॉरर फिल्म है, जो स्त्री शक्ति, अंधविश्वास और परंपराओं पर सवाल उठाती है। लेकिन तकनीकी रूप से इसकी कमजोर स्क्रिप्ट, सीमित डर और प्रेडिक्टेबल अंत इसे एक प्रभावशाली फिल्म बनने से रोकते हैं।
देखें अगर:
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आप काजोल के दमदार अभिनय के फैन हैं।
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पौराणिक और सामाजिक विषयों के मेल से बनी फिल्मों में रुचि रखते हैं।
छोड़ सकते हैं अगर:
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आपको रियल हॉरर और टाइट थ्रिलर की उम्मीद है।
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आप कुछ नया और Unpredictable देखना चाहते हैं।
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